Mahamrityunjaya Mantra

The Rudra Mantra or Mahamrityunjaya Mantra (Sanskrit: महामृत्युंजय मंत्र or महामृत्युञ्जय मन्त्र, mahāmṛtyuṃjaya mantra or mahāmṛtyuñjaya mantra, lit. “Great Death-conquering Mantra”), also known as the Tryambakam Mantra, is a verse (sūkta) of the Rigveda .59.12). The sūkta is addressed to Tryambaka, “The Three-eyed One”, an epithet of Rudra. It is identified with Shiva in Shaivism sect. The verse also recurs in the Yajurveda

Maha Mrityunjaya Mantra Lyrics in Sanskrit and English.

Aum Tryambakam yajaamahe sugandhim pushtivardhanam |
Urvaarukamiva bandanna-mrityormuksheeya maamritaat ||

The Meaning of the Mantra

We worship the three-eyed One, who is fragrant and who nourishes all.
Like the fruit falls off from the bondage of the stem, may we be liberated from death, from mortality.

सत्यम्, शिवम् सुंदरम्। यही तीन शब्द जीवन का मूल हैं। यही तीनाक्षर भगवान शिव को प्रिय हैं। शिव हैं क्या। शिव हमारे चारों ओर हैं। हम जो भी आचरण करते हैं, हम जो भी व्यवहार करते हैं, हम जो भी कर्म करते हैं,हम जो भी भोगते हैं, हम जो भी जीते हैं, हम जो भी मरते हैं इन सभी का मूल शिव हैं। शिव के बिना पूजा नहीं। शिव के बिना प्रकृति नहीं। प्रवृत्ति नहीं। जीवन नहीं। मृत्यु भी नहीं। शिव हमारे दैहिक, दैविक और भौतिक शक्ति हैं। शिव हमारे कण-कण में हैं। शिव आदि और अनंत हैं। शिव हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा हैं। शिव हमारी राजनीतिक शक्ति हैं। शिव हमारा आलोक हैं। शिव हमारा भूमंडल है। शिव प्रकृति स्वरूप हमारा स्तंभ है।

भगवान शंकर के दो स्वरूप हैं। वह निराकार भी हैं। साकार भी हैं। किसी अन्य देव के दो रूप नहीं हैं। साकार स्वरूप की पूजार्चना श्रावण मास में होती है। श्रावण शिवरात्रि भगवान शंकर और गौरी का पाणिग्रहण उत्सव है। निराकार स्वरूप की पूजा फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि पर। अहोरात्रि में यह एक है। ओशो ने अपनी पुस्तक प्रभु की खोज में लिखा है कि हम खुद जिस अवधारणा में होते हैं, हम ईश्वर को भी उसी रंग-रूप में देख लेते हैं। यह व्यापक सामाजिक दृष्टि है। इस दृष्टिकोण से भगवान शंकर हमारे सर्वाधिक निकट और ग्राह्य हैं। लेकिन यह अर्ध सत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि भगवान शंकर हमको जीना और मरना सिखाते हैं। वह प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का उपयोग बताते हैं। वह प्रकृति का दोहन न करने की सीख देते हैं। वह हमको बहुदेववाद की परिभाषा से दूर ले जाते हैं। और कहते हैं….ईश्वर एक है। उसका रंग, रूप और आकार नहीं है। एक ही रुद्र है। दूसरा कोई नहीं। एक ही परमात्मा की शरण में जाओ। जिस प्रकार सूर्य,चंद्रमा, आकाश, पृथ्वी और पाताल एक हैं। उसी तरह मैं भी एक हूं। मैं तुमको दिखता हूं अलग-अलग लेकिन मैं तो एक हूं।

भोले शंकर का स्वरूप देखिए। शीश पर चंद्रमा-शीतलता का प्रतीक। गले में विषधर यानी कालजयी। शरीर पर भस्म यानी देह नश्वर है। एक दिन सबको राख ही होना है। हाथ में डमरू यानी अंतरात्मा के स्वर। हिमालय पर वास अर्थात प्रकृति संरक्षण। सिर्फ एक जटा से गंगा की अजस्र धार अर्थात प्रकृति संतुलन और अनुशासन। उनका एक ही महामंत्र है…ओम। अ-अकार यानी मस्तिष्क। उ-उकार यानी उदर। म-मकार यानी मोक्ष। यह ओम ही सर्वव्यापक है। प्रणवाक्षर ही जीवनदायी है। वह भोले हैं। जल्द मान जाते हैं। उनसे सरल कोई नहीं। उनसे विलग कोई नहीं। वह सभी के आराध्य हैं। वह अर्पण और समर्पण के प्रतीक हैं। सभी देवताओं को मंत्र बांट दिए। अपने पास रखा तो सिर्फ राम नाम का मंत्र। अपनी पत्नी सती को बिना बुलाए मायके जाने से रोकते हैं। सती नहीं मानती लेकिन वहां तिरस्कार मिलता है। यह स्वाभाविक सीख है…बिन बुलाए कहीं मत जाओ। यानी शिव कर्म प्रधान हैं। कर्मों की श्रेष्ठता ही शिव है। जीवन और मृत्यु को सुधारने का नाम ही शिव संस्कृति है।

महाशिवरात्रि और ज्योतिर्लिंग

महाशिवरात्रि अहोरात्रि है। शिवपुराण में प्रसंग है कि एक बार तीनों ही देव में अपने अधिकार और सर्वश्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ। विवाद का कोई हल नहीं निकला। ब्रह्मा जी बोले…मैं सृष्टि का सर्जक हूं, इसलिए सर्वश्रेष्ठ हूं। विष्णु जी बोले..मैं पालक हूं, इसलिए सर्वश्रेष्ठ हूं। शिव बोले..मैं मोक्षदाता हूं अत: सर्वश्रेष्ठ हूं। तभी एक ज्योति फूटती है। यह निराकार ब्रह्म ज्योति थी। तुममें से कोई नहीं। मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूं। यही ज्योतिर्लिंग है। एको हि रुद्रो अर्थात एक ही रुद्र है। मानव शरीर पंचभूत तत्वों से बना है। भूमि,गगन, वायु, अग्रि और जल। ये पांच तत्व ही रुद्र हैं। यानी जन्म से मोक्ष तक जो साथ-साथ हो, वही रुद्र है. वह शिव है। भगवान का अर्थ भी यही है। भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर। संसार में श्रेष्ठ यानी शिवदायी कार्य करते हुए मोक्ष की कामना करने का नाम ही महाशिवरात्रि है। शिव हर काल और हर देव संस्कृति में साथ हैं। वह राम के भी पूज्य हैं। वह कृष्ण के भी आराध्य हैं। वह देवी के भी भी साधक और कारक हैं। शिव ( कल्याण) के बिना सब कुछ अधूरा। सत्य के बिना शिव नहीं। शिव के बिना सुंदर नहीं। सुंदर बिना जीवन निस्सार। महाशिवरात्रि कहती है कि अपने जीवन को श्रेष्ठ कर्म करते हुए, सत्य मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने जीवन को सुंदर बनाओ। वस्तुत: पंच तत्वों का स्मरण और अर्पण ही रुद्राभिषेक है।  जल का अर्थ है जन्म से लय( मोक्ष) तक। इसलिए हम जलार्पण करते हैं। गरल पीने से वह नीलकंठ बने। विष को शांत करने का काम विल्व पत्र करते हैं। इसलिए, उनको विल्वपत्र चढाए जाते हैं। भाव यह है कि हे महेश्वर! आप हमारे जीवन की लय के स्वामी हैं। हमको अमृत प्रदान करो। विषय-वासनाओं, कष्ट और रोग के गरल से हमको मुक्ति प्रदान करो।

महामृत्युंजय मंत्र

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥

• त्रयंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला

• यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं।

• सुगंधिम = सुगंधित

• पुष्टिः = समृद्ध जीवन की परिपूर्णता

• वर्धनम् = जो वृद्धि करता है ( स्वास्थ्य, धन, सुख और आनंद)

• उर्वारुकम = ककड़ी (कर्मकारक)

• इव = जैसे, इस तरह

• बन्धनात = तना

• मृत्योः = मृत्यु से

• मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें

• मा = न

• अमृतात = अमरता, मोक्ष

• अर्थ- हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग (मुक्त) हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों.

मामृतात और मा-अमृतात ( कृपया इसको प्रमुखता से लें)

इस महामंत्र के अंतिम अक्षर माsमृतात को सर्वाधिक सावधानी से पढ़ना चाहिए। जैसा अर्थ में भी स्पष्ट है यह मामृतात केवल उसी स्थिति में पढ़ा जाएगा जब मोक्ष नहीं मिल रहा हो। प्राण नहीं छूट रहे हों। आयु लगभग पूर्ण हो गई हो। मृत्यु की कामना निषेध है। जीवन की कामना करना अमृत है। लेकिन एसे भी क्षण आते हैं , जब आदमी मृत्यु शैया पर पड़ा होता है,लेकिन परमात्मा से बुलावा नहीं आता। तब यह महामंत्र 33-33 बार तीन बार पढ़ा जाता है। जीवन में अमृत प्राप्ति, कष्टों और रोगों से मुक्ति और जीवन में धन-यश-सुख-शांति के लिए इसको माsमृतात ( मा+ अमृतात) पढ़ा जाता है। जाप संख्या 108।  

क्यों है महामंत्र

इस महामंत्र 32 शब्द हैं। ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे’त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। मुनि वशिष्ठजी ने इन 33शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌शक्तियाँ परिभाषित की हैं। इस मंत्र में आठ वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य और एक वषट हैं।

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